सेवा छोड़ मेवा खा रहे कलाकार

खरी खरी....
राहुल गौतम/ जयपुर
सेवा छोड़ "मेवा" खा रहे कलाकार...
- सरकारें भी थोड़ा शर्म करें...बंद करें प्रोत्साहन
पं. जसराज, हरिप्रसाद चौरसिया, शिवकुमार शर्मा, अमजद अली खान, जाकिर हुसैन, अनूप जलोटा आदि फनकारों को देश के गांव, ढाणी के निवासी भी सुनना चाहते हैं। लेकिन मजबूरी है कि वहां इन कलाकारों को 5 लाख रुपए देने की सामर्थ्य आयोजकों की नहीं है। जबकि ये कलाकार यह बताकर सरकारी सम्मान और सुख- सुविधा प्राप्त करते हैं कि वे संगीत और कला की निस्वार्थ भाव से सेवा कर रहे हैं। प्रचार, प्रसार कर रहे हैं। जबकि काम इसके बिल्कुल विपरीत है। ये कलाकार सेवा से मुँह मोड़ सिर्फ मेवा खाने में लगे हुए हैं। इन्होंने संगीत और कला को सिर्फ और सिर्फ धन कमाने का जरिया बना लिया है। जो सरासर गलत है। पैसा जरूरत से यदि चार कदम आगे निकल कर मजबूरी बन जाए तो कला सेवा से व्यापार बन जाती है सरकारों को चाहिए कि जो कलाकार कला की वास्तव में सेवा करे और सिर्फ पैसे को ही सबकुछ नहीं समझे उसे ही पद्म पुरस्कार और अकादमी पुरस्कार प्रदान करे। लोक कलाकार वर्तमान में सिर्फ हजार रुपए में कार्य कर रहे हैं। जबकि पर्यटन विभाग, कला, संस्कृति विभाग, जेडीए बाहरी कलाकारों पर अनाप- शनाप धन का दोहन करते हैं। मंत्री, अधिकारियों को शर्म आनी चाहिए कि दो वक्त की रोटी को मजबूर लोक कलाकार और स्थानीय फनकार मुफलिसी में गुजर-बसर कर रहे हैं। वहीं बाहरी कलाकारों को लाखों रुपये बतौर नजराना दे दिया जाता है। आखिर ये दोगली नीति कब तक चलेगी? सरकारों को  सोचना चाहिए वोट उन्हें राजस्थान के कलाकार ही देते हैं। कोलकाता, मुम्बई, बनारस और दिल्ली आदि के कलाकार नहीं। यदि ये तथाकथित नामचीन फनकार आयोजक के बजट में भी अपने आपको सहमत कर प्रस्तुति देना शुरू कर दें तो न सिर्फ संगीत का सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचार- प्रसार होगा बल्कि ये लुप्त होती शास्त्रीय संगीत की विधा को संरक्षण कर सहेजा जा सकेगा। कला साधक कहलाने वाले सेलिब्रिटी बनकर जीवन जीते हैं। इन कलाकारों को भी आत्मचिंतन और आत्ममंथन जरूर करना चाहिए। दिखावा बंद कर इंसानियत का जीवन जीना चाहिए।